'पिया का घर "

कल अपने दोस्त के यहाँ बैठकर चाय का लुत्फ़ ले रही थी | मेरा यह दोस्त शल्य चिकित्सक है | छोटी -बड़ी सुइयों के साथ बहुत ही कुशलता से मानवी शरीर की उधेड़ -बुन करता है | में उससे बहुत ही प्रभावीत थी |
बातो के सिलसिलो के बीच उसने दो बार अपनी पत्नी को आवाज़ देकर उसके शर्ट का टूटा बटन टांक देने को कहा | काम में व्यस्त पत्नी ठीक से शायद सुन नहीं पायी | मित्र ने तीसरी बार जब आवाज देकर बटन टांकने को कहा तो मुझसे नहीं रहा गया
" तुम खुद क्यों नहीं टांक लेते बटन ? " देख नहीं रहे हो वह काम में व्यस्त है ?"
अजीब सी नज़रो से मित्र मुझे घूरने लगा | जैसे मैंने कोई बहुत ही घटिया बात कह दी हो |
' यह उसी का काम है . वही करेगी ' आखिर शादी क्यों की मैंने ??
मै आवाक सी उसे देख रही थी |







मेरा मित्र सही में बहुत 'उच्च -शिक्षित, है क्यों की वह घर के बाहर मानवी शरीर की सिलाई को ' स्टिच ' कहता है और घर के कपडे की सिलाई को 'मामूली सिलाई "| 

उसकी नज़रो में
'स्टिच' पुरुषो का काम है और 'सिलाई' औरतो का |

अपने उच्च शिक्षा के साथ-साथ वह इस संस्कार को भी ढ़ो रहा है . | इसे वह दूर नहीं कर सका | सच पूछो तो कितना अशिक्षित है ,यह बेचारा मेरा मित्र !

उसके हाथ में सुई कंही तो उसे 'गौरव" प्रदान कराती है और कही उसे 'अपमानित ' कराती है | इस भेद की परिभाषाए किसने दी ?

२)  मेरी बहन बैंक में नौकरी कराती है | उसका पति railways में | बहन अपने पति से ज्यादा वेतन पाती है . उससे ऊँचे ओहदे पर है ' | दोनों तक़रीबन एक साथ सुबह घर छोडते है और तकरीबन एक ही साथ घर आते है | दोनों एक ही वेतन नहीं पते है , बहन ज्यादा वेतन पाती है | लेकिन घर लौटने के बाद मेरी बहन का पती समाचार पत्र पढ़ने बैठ जाता है , फिर दूरदर्शन पर समाचार देखता है | बाद में थकने के कारन बिस्तर पर लेट जाता है | मेरी बहन रसोई में जाती है , तरकारी काटती है , खाना बनाती है , और फिर सबको खाना परोसती है | पर सिर्फ इतना ही काफी नहीं है ,इतना करने पर भी मिठाई का टुकड़ा और सब्जी का हिस्सा मेरे बहन के पती के हिस्से में ज्यादा आता है |

लोग कहते है आर्थिक दबदबा |

लेकिन यंहा तो आर्थिक दबदबा का मुद्दा नहीं है " मेरी बहन का वेतन कही ज्यादा है , अपने उस अदद पती से |

फिर ?????

यही है शायद सुखी परिवार

. स्वीट होम |

so called marriage -institution .



पती चाहे इंजीनीयर हो . या डॉक्टर हो या . बेरोजगार हो .| वह चाहे नौकर हो या जमादार हो , घर का काम तो औरतो को ही करना पड़ता है , खाना बनाना पड़ता है , परोसना पड़ता है |
जंहा पारिश्रमिक का मुद्दा आता है वहां स्त्री पुरुष की बराबरी की बात आती है , पर जंहा पारिश्रमिक नहीं है वंहा तो काम स्त्री को ही करना है | सिर्फ , सिर्फ और सिर्फ स्त्री को |
ठीक भी तो है औरत को आखिर रुपये पैसे की क्या जरूरत ? उसे तो घर का पुरुष खिलाता है , जैसे पालतू मैना को पला जाता है |


मैना को पालने के लिए जैसे पिंजरा बनाया जाता है .|



 औरत को पालने के लिए बनाया है

. घर 



, ख़ूबसूरत घर 

. पिया का घर , |||

2 comments:

Unknown said...

मधु,
स्त्री हि खऱ्या अर्थानी forward झाली आहे का ?
माझ्या आजीच्या आईची गोष्ट सांगतो..साल असेल १९४९ किंवा १९५१. माझे आजोबा रेल्वे मध्ये होते. पगार घरी नीट आणीत नवते . दारू पीत नवते पण जबादारी समजत नवती.३ मुली. आजी खूप वाईट दिवस काढत होती. पण त्या काळात सांगणार कोणाला? एक दिवस अचानक माझी पणजी तिच्याकडे राहायला गेली. पुण्याहून भुसावळ येथे.तिनी हे सर्व पहिले आणि निर्णय घेतला आणि माझ्या आजीला मुलीन्सकट पुण्याला आणले. माझ्या आजीला हिंगणे आश्रम शाळेत शिकायला पाठवले आणि तो पर्यंत तिच्या मुलीना म्हणजेच माझ्या आईला आणि मावश्यांना सांभाळले . आजी ७ वी पास झाली, शाळेत १ली आली. तिला बीएमसी च्या शाळेत नोकरी मिळाली. काळ १९५७ पर्यंतचा.

माझी आजी आणि तिची आई त्या काळात हा निर्णय घेवू शकतात तर ह्या तुझ्या आजकालच्या बायका हा आत्मसन्मान का बाळगू शकत नाहीत?
हा पुरातन विचारांचा ' लादेन ' का ओढवून घेतात ?
प्रश्न ' अरे ला कारे ' हा नाही तर ओढ आणि प्रेम ह्याची 'जाणीव' हि महत्वाची. हे कधी समजून घेणार हे पुरुष ?

Unknown said...

मैं लिखना नहीं जानता और लिखे हुए को समझ पाना मेरे बस की बात नहीं, लेकिन फिर भी आपके लेख को भली भाँती समझ जाता हूँ ! आपके लेख हमेशा महिलाओ के इर्द गिर्द घुमती है ! असल में आप जो भी लिखती है महिलाओ के रोजमर्रा की कहानी को बयां करती है .... नारी शक्ति को प्रणाम

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